Wednesday, September 1, 2010

माँ तुझे सलाम !!!

माँ तुझे सलाम!!

बंगलौर नेशनल हाई वे। मेरी कार 100/120 की रफ़तार से दौड़ती जा रही थी। ड्राइवर की बगल वाली सीट पर मैं अपने आँसुओं को रोक पाने में असमर्थ थी। हिचकियों को रोकने की कोशिश किए लगातार सामने या बाई तरफ़ आँखें किए हुए थी कि कहीं पीछे की सीट पर बैठी मेरी सत्रह वर्षीया बेटी और पति पर ज़ाहिर न हों कि मेरी आँखे अविरल अश्रुधारा बहाती जा रही हैं। दोनों मुझे छोड़ने बंगलौर आ रहे थे।

घर वालों से बिछड़ने का तो दुख था ही , उससे कहीं अधिक कष्ट हो रहा था - अपनी मातृभूमि से दूर जाने का । गोद में एक प्लास्टिक की थैली कस कर पकड़े थी। मैंने चलते समय चुपचाप सबकी नज़र बचाकर बगीचे के आम के पेड़ के नीचे से अपने देश की माटी उसमें रख ली थी। मन दुख के आवेग को सह नहीं पा रहा था । बार - बार लगता था -
हे माँ ! मेरी मातृभूमि ! तुम्हारे किस अँचल को विदा कहूँ । सड़क के दोनों किनारों के खेतों की इन हवाओँ को या बंगाल की खाड़ी के भाग को । हिमालय की ऊँची चोटियों को या गंगा की तराई में झूमते-लहराते खेतों को । अपने शहर और घर का पूरा स्वरूप आँखों के सामने तैर-सा जाता था जहाँ मैने अपना बचपन गुज़ारा था।

मैंने सपने में भी अपने देश की धरती से दूर जाने की नहीं सोचा था। पर आज कुछ ऐसा संयोग बन पड़ा था कि मुझे तीन वर्षों के लिए रूस की राजधानी मास्को जाना था। यद्यपि सबकी दृष्टि से यह मेरी उपलब्धि थी।

मेरे माता-पिता और शिक्षकों ने बचपन से ही मेरे मन में भारतीय संस्कृति के प्रति अटूट आस्य़ा और देश-प्रेम का जो बीज बोया था उसकी जड़ें मेरे व्यक्तित्व में कुछ ऐसी गहरी जम गई हैं कि मैने अपने पच्चीस वर्षों के शिक्षक जीवन में इन्हें अगली पीढ़ी को हस्तांतरित करने का भरपूर दायित्व निभाया । नन्हें कोमल मस्तिष्क में ज्ञान भरने के साथ अच्छे संस्कार और उच्च विचारों को रोपित करना मेरा लक्ष्य था और तरीका था अपनी जन्मभूमि के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने का। देशभक्ति थी अपने कर्तव्यों का समय और ईमानदारी से निर्वहन करने में।

अभी तक मैंने यथा सम्भव अपने और अपने परिवार को कर्तव्यनिष्ठ और कर्मठ मार्ग पर ले जाने की कोशिश की थी।
अपनी दृष्टि से कभी भी ऐसे अनैतिक कर्म नहीं किए थे जिसमें लालच या भ्रष्टाचार की बू आती हो।

संयोग से मुझे जीवन में सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित करने एवम् उन्हें मंच पर संचालन करने के कई अवसर मिले। मैंने तरुण बालक-बालिकाओँ से , युवक-युवतियों से कई ऐसी भूमिकाएँ अभिनीत करवाईँ जिसमें समाज को आगे बढ़ाने की सकारात्मक सोच एवम् जन्मभूमि के प्रति स्नेह-लगाव-प्यार की झलक हुआ करती थी। मंच पर मेरा उद्देश्य न केवल मनोरंजन था बल्कि दर्शकों व कलाकारों दोनों को नई सोच और नई दिशा की ओर प्रेरित करना हुआ करता था।

बंगलौर हवाई अड्डे से अपनी दोनों बेटियों और पति से अश्रुपूरित बिदाई ले मैं हवाई जहाज़ से मुम्बई होते हुए अकेले मॉस्को पहुँच गई। नया देश, नए लोग, पर दायित्व मेरी अपनी पसंद का- शिक्षक कर्म। परिवेश भिन्न होने के कारण चुनौतियाँ अधिक । प्रारम्भ में दिक्कतें कुछ अवश्य आईं पर जीवन स्वत: अपना मार्ग बना लेता है। प्राथमिक विभाग के मासूम नन्हें-मुन्ने बच्चों के साथ मेरे शिक्षण कार्य ने पुन: गति और लय पकड़ ली जिसमें आत्म संतुष्टि होती है।

हज़ारों मील दूर काम की व्यस्तता समाप्त होते ही मन अपने आप वतन की ओर दौड़ पड़ता है। भारत माता की मूरत मन में बनाने की कोशिश करती हूँ। कोई निश्चित स्वरूप बना पाने में असमर्थ मन उन बच्चियों के रूप में भारत माता को देखने लगता है जिन्होंने मंच पर उसकी भूमिका निभाई थी। लाल बॉर्डर की सफ़ेद साड़ी पहने, सिर पर मुकुट , हाथ में तिरंगा लिए खड़ी अपनी भारत माता। मन ही मन गुगगुनाते हुए आँखें भर आती है-

छोड़ कर तेरी ज़मीं को , दूर आ पहुँचे हैं हम
फिर भी ये ही तमन्ना , तेरे ज़र्रों की कसम
हम जहाँ पैदा हुए हैं उस जगह ही निकले दम
तुझपे दिल कुर्बान !!!


स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस पर बड़े उत्साह के साथ एम्बेसी परिसर में सम्पन्न होने वाले ध्वजारोहण समारोह में भाग लेने जाती हूँ। बच्चों के साथ फ़हराते तिरंगे के नीचे खड़े होकर देशभक्ति भाव वाले गाने गाकर गर्व का अनुभव करती हूँ। किसी को पता भी नहीं लग पाता कि कई बार आँखें नम हो आतीं हैं ।

आज बरबस मैथिली शरण गुप्त की ये पंक्तियाँ याद आ रही हैं -
पाकर तुमसे सभी सुखों के मैने भोगा
तेरा प्रत्युपकार कभी क्या मुझसे होगा।
तेरी ही यह देह तुझी से बनी हुई है
बस तेरे ही सुरस सार से सनी हुई है।
अंत समय में तू ही इसे अचल देख अपनाएगी
हे मातृभूमि ! यह अंत तुझमें ही मिल जाएगी।

हर रोज़ सुबह सबसे पहले 'सर्वे भवंतु सुखिन:' के श्लोक के बाद ईश्वर से हाथ जोड़कर विनती करती हूँ - करुणानिधान भगवान मेरे भारत को स्वर्ग बना दो और अपने साथ लाई हुई भारत भूमि की माटी के सामने खड़े होकर बोल उठती हूँ -
माँ तुझे सलाम।

4 comments:

  1. चलचित्र की तरह साकार होता हुआ धारा प्रवाह लेखन - अति सुंदर - माँ भारती को प्रणाम

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  2. हिंदी ब्लाग लेखन के लिए स्वागत और बधाई
    कृपया अन्य ब्लॉगों को भी पढें और अपनी बहुमूल्य टिप्पणियां देनें का कष्ट करें

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  3. बहुत अच्छा जय हिंद |

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  4. हार्दिक धन्यबाद--- अपने सभी का, आपने बलाग पृष्टों पर मेरी दस्तक को सराहा।
    शिक्षक दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ---- उन सभी शिक्षकों से आह्नवाहन है कि समाज व राष्ट्र को सही दिशा देने वाली सीख दे, राष्ट्र निर्माण में योगदान दों।
    नारायणी सिंह

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